क़ौल 'आबरू' का था कि न जाऊँगा उस गली
हो कर के बे-क़रार देखो आज फिर गया
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कहें क्या तुम सूँ बे-दर्द लोगो किसी से जी का मरम न पाया
अगर अँखियों सीं अँखियों को मिलाओगे तो क्या होगा
ये सब्ज़ा और ये आब-ए-रवाँ और अब्र ये गहरा
मोहब्बत सेहर है यारो अगर हासिल हो यक-रूई
ख़ुदावंदा करम कर फ़ज़्ल कर अहवाल पर मेरे
आज यारों को मुबारक हो कि सुब्ह-ए-ईद है
तुम्हारे दिल में क्या ना-मेहरबानी आ गई ज़ालिम
यार रूठा है हम सें मनता नहिं
ऐ सर्द-मेहर तुझ सीं ख़ूबाँ जहाँ के काँपे
फ़जर उठ ख़्वाब सीं गुलशन में जब तुम ने मली अँखियाँ
दूर ख़ामोश बैठा रहता हूँ
आया है सुब्ह नींद सूँ उठ रसमसा हुआ