आज यारों को मुबारक हो कि सुब्ह-ए-ईद है
राग है मय है चमन है दिलरुबा है दीद है
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दाग़ सीं क्यूँ न दिल उजाला हो
दिल्ली के बीच हाए अकेले मरेंगे हम
फ़ानी-ए-इश्क़ कूँ तहक़ीक़ कि हस्ती है कुफ़्र
क्यूँ बंद सब खुले हैं क्यूँ चीर अटपटा है
ख़ुद अपनी आदमी को बड़ी क़ैद-ए-सख़्त है
मिल गया था बाग़ में माशूक़ इक नक-दार सा
सर कूँ अपने क़दम बना कर के
ग़म से हम सूख जब हुए लकड़ी
दूर ख़ामोश बैठा रहता हूँ
यार रूठा है हम सें मनता नहिं
दिल कब आवारगी को भूला है
अगर अँखियों सीं अँखियों को मिलाओगे तो क्या होगा