ख़ुद अपनी आदमी को बड़ी क़ैद-ए-सख़्त है
फोड़ आईना व तोड़ सिकंदर की सद के तईं
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इश्क़ है इख़्तियार का दुश्मन
वस्ल की अर्ज़ का जब वक़्त कभी पाता हूँ
क्यूँ मलामत इस क़दर करते हो बे-हासिल है ये
ज़िंदगानी सराब की सी तरह
सैर-ए-बहार-ए-हुस्न ही अँखियों का काम जान
तुम्हारी जब सीं आई हैं सजन दुखने को लाल अँखियाँ
इक अर्ज़ सब सीं छुप कर करनी है हम कूँ तुम सीं
शेर को मज़मून सेती क़द्र हो है 'आबरू'
बढ़े है दिन-ब-दिन तुझ मुख की ताब आहिस्ता आहिस्ता
तुम्हारी देख कर ये ख़ुश-ख़िरामी आब-रफ़्तारी
ख़ुर्शीद-रू के आगे हो नूर का सवाली
क्या बुरी तरह भौं मटकती है