शेर को मज़मून सेती क़द्र हो है 'आबरू'
क़ाफ़िया सेती मिलाया क़ाफ़िया तो क्या हुआ
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जो कि बिस्मिल्लाह कर खाए तआम
शौक़ बढ़ता है मिरे दिल का दिल-अफ़गारों के बीच
शब-ए-सियाह हुआ रोज़ ऐ सजन तुझ बिन
दिवाने दिल कूँ मेरे शहर सें हरगिज़ नहीं बनती
इक अर्ज़ सब सीं छुप कर करनी है हम कूँ तुम सीं
तुम्हारे देखने के वास्ते मरते हैं हम खल सीं
नालाँ हुआ है जल कर सीने में मन हमारा
न पावे चाल तेरे की पियारे ये ढलक दरिया
कहो तुम किस सबब रूठे हो प्यारे बे-गुनह हम सीं
ख़ुदावंदा करम कर फ़ज़्ल कर अहवाल पर मेरे
नमकीं गोया कबाब हैं फीके शराब के