जो कि बिस्मिल्लाह कर खाए तआम
तो ज़रर नईं गो कि होवे बिस मिला
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जंगल के बीच वहशत घर में जफ़ा ओ कुल्फ़त
और वाइज़ के साथ मिल ले शैख़
अगर देखे तुम्हारी ज़ुल्फ़ ले डस
जब सीं तिरे मुलाएम गालों में दिल धँसा है
दिखाई ख़्वाब में दी थी टुक इक मुँह की झलक हम कूँ
उस वक़्त दिल पे क्यूँके कहूँ क्या गुज़र गया
इंसान है तो किब्र सीं कहता है क्यूँ अना
क्यूँ तिरी थोड़ी सी गर्मी सीं पिघल जावे है जाँ
हो गए हैं पैर सारे तिफ़्ल-ए-अश्क
तुम्हारे देखने के वास्ते मरते हैं हम खल सीं
डर ख़ुदा सीं ख़ूब नईं ये वक़्त-ए-क़त्ल-ए-आम कूँ
कम मत गिनो ये बख़्त-सियाहों का रंग-ए-ज़र्द