सर कूँ अपने क़दम बना कर के
इज्ज़ की राह मैं निबहता हूँ
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गरचे इस बुनियाद-ए-हस्ती के अनासिर चार हैं
देख तू बे-रहम आशिक़ नीं तुझे छोड़ा नहीं
हो गए हैं पैर सारे तिफ़्ल-ए-अश्क
जलते थे तुम कूँ देख के ग़ैर अंजुमन में हम
दिलदार की गली में मुकर्रर गए हैं हम
बोसाँ लबाँ सीं देने कहा कह के फिर गया
गुनाहगारों की उज़्र-ख़्वाही हमारे साहिब क़ुबूल कीजे
है हमन का शाम कोई ले जा
ऐ सर्द-मेहर तुझ सीं ख़ूबाँ जहाँ के काँपे
आया है सुब्ह नींद सूँ उठ रसमसा हुआ
सैर-ए-बहार-ए-हुस्न ही अँखियों का काम जान
रोवने नीं मुझ दिवाने के किया सियानों का काम