दिल कब आवारगी को भूला है
ख़ाक अगर हो गया बगूला है
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तुम्हारे देखने के वास्ते मरते हैं हम खल सीं
गली अकेली है प्यारे अँधेरी रातें हैं
जब कि ऐसा हो गंदुमी माशूक़
ऐ सर्द-मेहर तुझ सीं ख़ूबाँ जहाँ के काँपे
जलते थे तुम कूँ देख के ग़ैर अंजुमन में हम
क़ौल 'आबरू' का था कि न जाऊँगा उस गली
रोवने नीं मुझ दिवाने के किया सियानों का काम
दिल्ली में दर्द-ए-दिल कूँ कोई पूछता नहीं
आशिक़ बिपत के मारे रोते हुए जिधर जाँ
हुआ हूँ दिल सेती बंदा पिया की मेहरबानी का
जलता है अब तलक तिरी ज़ुल्फ़ों के रश्क से