जलता है अब तलक तिरी ज़ुल्फ़ों के रश्क से
हर-चंद हो गया है चमन का चराग़ गुल
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दूर ख़ामोश बैठा रहता हूँ
रता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर लावबाली का
क्यूँ मलामत इस क़दर करते हो बे-हासिल है ये
नमकीं गोया कबाब हैं फीके शराब के
आग़ोश सीं सजन के हमन कूँ किया कनार
जब कि ऐसा हो गंदुमी माशूक़
ख़ुदावंदा करम कर फ़ज़्ल कर अहवाल पर मेरे
हुस्न पर है ख़ूब-रूयाँ में वफ़ा की ख़ू नहीं
गरचे इस बुनियाद-ए-हस्ती के अनासिर चार हैं
आशिक़ बिपत के मारे रोते हुए जिधर जाँ
क्यूँ तिरी थोड़ी सी गर्मी सीं पिघल जावे है जाँ
आश्नाई ब-ज़ोर नहिं होती