उठो Poetry (page 10)

जम्हूरियत

हबीब जालिब

शहर वीराँ उदास हैं गलियाँ

हबीब जालिब

क़दमों पे डर के रख दिया सर ताकि उठ न जाएँ

हबीब मूसवी

सब में हूँ फिर किसी से सरोकार भी नहीं

हबीब मूसवी

जब शाम हुई दिल घबराया लोग उठ के बराए सैर चले

हबीब मूसवी

साग़र में शक्ल-ए-दुख़्तर-ए-रज़ कुछ बदल गई

गुस्ताख़ रामपुरी

वो जो शाएर था

गुलज़ार

एक और रात

गुलज़ार

कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है

गुलज़ार

ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़्साने में

गुलज़ार

बहुत वाक़िफ़ हैं लब-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ से

गोर बचन सिंह दयाल मग़मूम

फ़क़त इक शग़्ल बेकारी है अब बादा-कशी अपनी

गोपाल मित्तल

ज़िंदगी मर्ग की मोहलत ही सही

ग़ुलाम मौला क़लक़

थक थक गए हैं आशिक़ दरमांदा-ए-फ़ुग़ाँ हो

ग़ुलाम मौला क़लक़

राज़-ए-दिल दोस्त को सुना बैठे

ग़ुलाम मौला क़लक़

ज़बाँ साकित हो क़त-ए-गुफ़्तुगू हो

ग़ुबार भट्टी

अभी देखी कहाँ हैं आप ने सब ख़ूबियाँ मेरी

ग़ौसिया ख़ान सबीन

जब तवक़्क़ो ही उठ गई 'ग़ालिब'

ग़ालिब

नवेद-ए-अम्न है बेदाद-ए-दोस्त जाँ के लिए

ग़ालिब

जौर से बाज़ आए पर बाज़ आएँ क्या

ग़ालिब

इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई

ग़ालिब

बे-ए'तिदालियों से सुबुक सब में हम हुए

ग़ालिब

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी

फ़िराक़ गोरखपुरी

कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में

फ़िराक़ गोरखपुरी

महफ़िल-ए-कौन-ओ-मकाँ तेरी ही बज़्म-ए-नाज़ है

फ़िगार उन्नावी

तुम हरीम-ए-नाज़ में बैठे हो बेगाने बने

फ़िगार उन्नावी

आज जाने की ज़िद न करो

फ़य्याज़ हाशमी

इतनी ख़राब सूरत-ए-हालात भी नहीं

फ़ारूक़ नाज़की

हथेली से ठंडा धुआँ उठ रहा है

फरीहा नक़वी

शनासाई का सिलसिला देखती हूँ

फरीहा नक़वी

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