सदा Poetry (page 19)
गुम्बद-ए-ज़ात में अब कोई सदा दूँ तो चलूँ
रशीद क़ैसरानी
गाता रहा है दूर कोई हीर रात भर
रशीद क़ैसरानी
ज़ात के कमरे में बैठा हूँ मैं खिड़की खोल कर
रशीद निसार
सरहद-ए-जिस्म पे हैरान खड़ा था मैं भी
रशीद निसार
उक़्दे उल्फ़त के सब ऐ रश्क-ए-क़मर खोल दिए
रशीद लखनवी
है बे-ख़ुद वस्ल में दिल हिज्र में मुज़्तर सिवा होगा
रशीद लखनवी
गर्म रफ़्तार है तेरी ये पता देते हैं
रशीद लखनवी
रात क्या सोच रहा था मैं भी
रसा चुग़ताई
मैं ने सोचा था इस अजनबी शहर में ज़िंदगी चलते-फिरते गुज़र जाएगी
रसा चुग़ताई
आज बार-ए-गोश है मेरी सदा उस को मगर
राणा गन्नौरी
जीत और हार का इम्कान कहाँ देखते हैं
राना आमिर लियाक़त
होता है मेहरबान कहाँ पर ख़ुदा-ए-इश्क़
राना आमिर लियाक़त
शब-ए-ग़म की सहर नहीं होती
राम कृष्ण मुज़्तर
चराग़ बुझने लगे और छाई तारीकी
राकिब मुख़्तार
अजब नहीं है मुआलिज शिफ़ा से मर जाएँ
राकिब मुख़्तार
है वही मंज़र-ए-ख़ूँ-रंग जहाँ तक देखूँ
रख़शां हाशमी
नफ़ी सारे हिसाबों की
राजेन्द्र मनचंदा बानी
इधर की आवाज़ इस तरफ़ है
राजेन्द्र मनचंदा बानी
हर्फ़-ए-ग़ैर
राजेन्द्र मनचंदा बानी
तीरगी बला की है मैं कोई सदा लगाऊँ
राजेन्द्र मनचंदा बानी
सियाह-ख़ाना-ए-उम्मीद-ए-राएगाँ से निकल
राजेन्द्र मनचंदा बानी
सरसब्ज़ मौसमों का नशा भी मिरे लिए
राजेन्द्र मनचंदा बानी
न मंज़िलें थीं न कुछ दिल में था न सर में था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
न जाने कल हों कहाँ साथ अब हवा के हैं
राजेन्द्र मनचंदा बानी
न हरीफ़ाना मिरे सामने आ मैं क्या हूँ
राजेन्द्र मनचंदा बानी
मुझ से इक इक क़दम पर बिछड़ता हुआ कौन था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
मिरे बदन में पिघलता हुआ सा कुछ तो है
राजेन्द्र मनचंदा बानी
मेहराब न क़िंदील न असरार न तमसील
राजेन्द्र मनचंदा बानी
दिलों में ख़ाक सी उड़ती है क्या न जाने क्या
राजेन्द्र मनचंदा बानी
देखता था मैं पलट कर हर आन
राजेन्द्र मनचंदा बानी
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