छाया Poetry (page 16)

यारों ने मेरी राह में दीवार खींच कर

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

किसी की राह में आने की ये भी सूरत है

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

पेड़ अगर ऊँचा मिलता है

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

पस्त-ओ-बुलंद में जो तुझे रिश्ता चाहिए

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

कहीं कहीं से पुर-असरार हो लिया जाए

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

एक ज़ाती नज़्म

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

लब पे सुर्ख़ी की जगह जो मुस्कुराहट मल रहे हैं

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

बयाबाँ दूर तक मैं ने सजाया था

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

बन में वीराँ थी नज़र शहर में दिल रोता है

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

ऐ ख़ार ख़ार-ए-हसरत क्या क्या फ़िगार हैं हम

ग़ुलाम मौला क़लक़

आइना-आसा ये ख़्वाब-ए-नीलमीं रक्खूँगा मैं

ग़ुलाम हुसैन साजिद

तेज़ होती जा रही है किस लिए धड़कन मिरी

ग़ज़नफ़र

ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद

ग़ालिब

मस्जिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिए

ग़ालिब

हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से

ग़ालिब

बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार

ग़ालिब

मता-ए-इश्क़ ज़रा और सर्फ़-ए-नाज़ तो हो

गौहर होशियारपुरी

मरहला तय कोई बे-मिन्नत-ए-जादा भी तो हो

गौहर होशियारपुरी

ख़ाक में मुझ को मिरी जान मिला रक्खा है

फ़ज़ल हुसैन साबिर

पाया-ए-ख़िश्त-ओ-ख़ज़फ़ और गुहर से ऊँचा

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

लहू ही कितना है जो चश्म-ए-तर से निकलेगा

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

और क्या मुझ से कोई साहिब-नज़र ले जाएगा

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

यूँ मुसल्लत तो धुआँ जिस्म के अंदर तक है

फ़र्रुख़ जाफ़री

था अबस ख़ौफ़ कि आसेब-ए-गुमाँ मैं ही था

फ़र्रुख़ जाफ़री

रौशनी से किस तरह पर्दा करेंगे

फ़र्रुख़ जाफ़री

इस राज़ के बातिन तक पहुँचा ही नहीं कोई

फ़र्रुख़ जाफ़री

बहुत धोका किया ख़ुद को मगर क्या कर लिया मैं ने

फ़ारूक़ शफ़क़

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