मता-ए-इश्क़ ज़रा और सर्फ़-ए-नाज़ तो हो
मता-ए-इश्क़ ज़रा और सर्फ़-ए-नाज़ तो हो
तज़ी-ए-उम्र का आख़िर कोई जवाज़ तो हो
ब-हम-दिगर कोई शब उस से लब-ब-लब तो चले
हवा-ए-शौक़ कुछ आलूदा-ए-मजाज़ तो हो
क़दम क़दम कोई साया सा मुत्तसिल तो रहे
सराब का ये सर-ए-सिलसिला दराज़ तो हो
वो कम-सुख़न न कम-आमेज़ फिर तकल्लुफ़ क्या
कुछ उस से बात तो ठहरे कुछ उस से साज़ तो हो
वफ़ा से मंज़िल-ए-तर्क-ए-वफ़ा तक आ निकले
किसी बहाने तो पत्थर कभी गुदाज़ तो हो
शफ़क़ किनाया-ए-लब शाम इस्तारा-ए-ज़ुल्फ़
कभी ख़याल वसीलों से बे-नियाज़ तो हो
हुज़ूर-ए-नाज़ अबस है ख़याल-ए-जाँ 'गौहर'
नियाज़ महरम-ए-ख़म्याज़ा-ए-नियाज़ तो हो
(924) Peoples Rate This