लोग किनारे आन लगे
और किनारा डूब गया
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अपना दुखड़ा कहते हैं
मरहला तय कोई बे-मिन्नत-ए-जादा भी तो हो
शाइरी बात नहीं गर्म-ए-सुख़न होने की
यहाँ कौन इस के सिवा रह गया
कैसे डूबा डूब गया
दिल तमाम आईने तीरा कौन रौशन कौन
जाती रुत से प्यार करोगे
इक साया-ए-शाम याद आया
उजले मैले पेश हुए
हाँ काहिश-ए-फ़ुज़ूल का हासिल भी कुछ नहीं
कहाँ वो ज़ब्त के दावे कहाँ ये हम 'गौहर'
मैं ख़ुद ही ख़ूगर-ए-ख़लिश-ए-जुस्तुजू न था