लहजा तो बदल चुभती हुई बात से पहले
तीर ऐसा तो कुछ हो जिसे नख़चीर भी चाहे
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हाँ काहिश-ए-फ़ुज़ूल का हासिल भी कुछ नहीं
है जो भी जज़ा सज़ा अता हो
फूलों में वही तो फूल ठहरा
कहाँ वो ज़ब्त के दावे कहाँ ये हम 'गौहर'
मरहला तय कोई बे-मिन्नत-ए-जादा भी तो हो
दिल सिलसिला-ए-शौक़ की तश्हीर भी चाहे
बंदों का मिज़ाज हम ने देखा
दिल तमाम आईने तीरा कौन रौशन कौन
उजले मैले पेश हुए
समन-बरों से चमन दौलत-ए-नुमू माँगे
इक साया-ए-शाम याद आया
दुखी दिलों में, दुखी साथियों में रहते थे