रात Poetry (page 55)

बहुत दिनों में वो आए हैं वस्ल की शब है

हबीब मूसवी

शराब पी जान तन में आई अलम से था दिल कबाब कैसा

हबीब मूसवी

जबीन पर क्यूँ शिकन है ऐ जान मुँह है ग़ुस्से से लाल कैसा

हबीब मूसवी

हुए ख़ल्क़ जब से जहाँ में हम हवस-ए-नज़ारा-ए-यार है

हबीब मूसवी

है आठ पहर तू जल्वा-नुमा तिमसाल-ए-नज़र है परतव-ए-रुख़

हबीब मूसवी

उस को देखा तो नाम भूल गया

हबीब कैफ़ी

तुम्हारे ख़्वाब से हर शब लिपट के सोते हैं

गुलज़ार

मैं चुप कराता हूँ हर शब उमडती बारिश को

गुलज़ार

आग में क्या क्या जला है शब भर

गुलज़ार

ख़ुद-कुशी

गुलज़ार

काँच के पीछे चाँद भी था और काँच के ऊपर काई भी

गुलज़ार

जब भी आँखों में अश्क भर आए

गुलज़ार

हवा के सींग न पकड़ो खदेड़ देती है

गुलज़ार

गुलों को सुनना ज़रा तुम सदाएँ भेजी हैं

गुलज़ार

एक परवाज़ दिखाई दी है

गुलज़ार

याद करने का तुम्हें कोई इरादा भी न था

गुलनार आफ़रीन

शायद अभी कमी सी मसीहाइयों में है

गुलनार आफ़रीन

दिल ने इक आह भरी आँख में आँसू आए

गुलनार आफ़रीन

मौज-ए-सरसर की तरह दिल से गुज़र जाओगे

गुलाम जीलानी असग़र

तूफ़ान समुंदर के न दरिया के भँवर देख

गुहर खैराबादी

उल्फ़त ये छुपाएँ हम किसी की

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

क़त्ल उश्शाक़ किया करते हैं

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

लब-ए-जाँ-बख़्श पे दम अपना फ़ना होता है

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

क्यूँकर न ख़ुश हो सर मिरा लटक्का के दार में

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

किस नाज़ से वाह हम को मारा

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

हाथ से कुछ न तिरे ऐ मह-ए-कनआँ होगा

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

हसरत ऐ जाँ शब-ए-जुदाई है

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

दुआएँ माँगीं हैं मुद्दतों तक झुका के सर हाथ उठा उठा कर

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

अपना हर उज़्व चश्म-ए-बीना है

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

है बहुत अँधियार अब सूरज निकलना चाहिए

गोपालदास नीरज

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