बहुत दिनों में वो आए हैं वस्ल की शब है
मोअज़्ज़िन आज न यारब उठे अज़ाँ के लिए
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शराब पी जान तन में आई अलम से था दिल कबाब कैसा
ख़ुदा करे कहीं मय-ख़ाने की तरफ़ न मुड़े
रिंदों को वाज़ पंद न कर फ़स्ल-ए-गुल में शैख़
सब में हूँ फिर किसी से सरोकार भी नहीं
मय-कदा है शैख़ साहब ये कोई मस्जिद नहीं
दिल लिया है तो ख़ुदा के लिए कह दो साहब
फ़स्ल-ए-गुल आई उठा अब्र चली सर्द हुआ
चल नहीं सकते वहाँ ज़ेहन-ए-रसा के जोड़-तोड़
लिख कर मुक़त्तआ'त में दीं उन को अर्ज़ियाँ
दश्त-ओ-सहरा में हसीं फिरते हैं घबराए हुए
लैस हो कर जो मिरा तर्क-ए-जफ़ा-कार चले