असल साबित है वही शरअ' का इक पर्दा है
दाने तस्बीह के सब फिरते हैं ज़ुन्नारों पर
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दाग़-ए-दिल हैं ग़ैरत-ए-सद-लाला-ज़ार अब के बरस
तीरा-बख़्ती की बला से यूँ निकलना चाहिए
शम्अ का शाना-ए-इक़बाल है तौफ़ीक़-ए-करम
किसी सूरत से हुई कम न हमारी तशवीश
चाँदनी छुपती है तकयों के तले आँखों में ख़्वाब
जो ले लेते हो यूँ हर एक का दिल बातों बातों में
तालिब-ए-बोसा हूँ मैं क़ासिद वो हैं ख़्वाहान-ए-जान
देख लो तुम ख़ू-ए-आतिश ऐ क़मर शीशे में है
बरहमन शैख़ को कर दे निगाह-ए-नाज़ उस बुत की
यूँ आती हैं अब मेरे तनफ़्फ़ुस की सदाएँ
क्या हुआ वीराँ किया गर मोहतसिब ने मय-कदा
बुतान-ए-सर्व-क़ामत की मोहब्बत में न फल पाया