किसी सूरत से हुई कम न हमारी तशवीश
जब बढ़ी दिल से तो आफ़ाक़ में फैली तशवीश
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लैस हो कर जो मिरा तर्क-ए-जफ़ा-कार चले
असल साबित है वही शरअ' का इक पर्दा है
शराब पी जान तन में आई अलम से था दिल कबाब कैसा
वो उट्ठे हैं तेवर बदलते हुए
गुलों का दौर है बुलबुल मज़े बहार में लूट
है नौ-जवानी में ज़ोफ़-ए-पीरी बदन में रअशा कमर में ख़म है
दश्त-ओ-सहरा में हसीं फिरते हैं घबराए हुए
सब में हूँ फिर किसी से सरोकार भी नहीं
बुतान-ए-सर्व-क़ामत की मोहब्बत में न फल पाया
दिल लिया है तो ख़ुदा के लिए कह दो साहब
मय-कदे को जा के देख आऊँ ये हसरत दिल में है
कोई बात ऐसी आज ऐ मेरी गुल-रुख़्सार बन जाए