तीरा-बख़्ती की बला से यूँ निकलना चाहिए
जिस तरह सुलझा के ज़ुल्फ़ों को अलग शाना हुआ
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थोड़ी थोड़ी राह में पी लेंगे गर कम है तो क्या
मेहर-ओ-उल्फ़त से मआल-ए-तहज़ीब
रिंदों को वाज़ पंद न कर फ़स्ल-ए-गुल में शैख़
क़त्अ होता रहे इस तरह बयान-ए-वाइज़
शम्अ का शाना-ए-इक़बाल है तौफ़ीक़-ए-करम
कसी हैं भब्तियाँ मस्जिद में रीश-ए-वाइज़ पर
बढ़ा दी इक नज़र में तू ने क्या तौक़ीर पत्थर की
फ़लक की गर्दिशें ऐसी नहीं जिन में क़दम ठहरे
जो ले लेते हो यूँ हर एक का दिल बातों बातों में
किसी की जुब्बा-साई से कभी घिसता नहीं पत्थर
गुलों का दौर है बुलबुल मज़े बहार में लूट
करो बातें हटाओ आइना बस बन चुके गेसू