ये साबित है कि मुतलक़ का तअय्युन हो नहीं सकता
वो सालिक ही नहीं जो चल के ता-दैर-ओ-हरम ठहरे
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Allama Iqbal
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Habib Jalib
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वो यूँ शक्ल-ए-तर्ज़-ए-बयाँ खींचते हैं
वो उट्ठे हैं तेवर बदलते हुए
मय-कदे को जा के देख आऊँ ये हसरत दिल में है
लैस हो कर जो मिरा तर्क-ए-जफ़ा-कार चले
रिंदों को वाज़ पंद न कर फ़स्ल-ए-गुल में शैख़
चल नहीं सकते वहाँ ज़ेहन-ए-रसा के जोड़-तोड़
भला हो जिस काम में किसी का तो उस में वक़्फ़ा न कीजिएगा
मय-कदा है शैख़ साहब ये कोई मस्जिद नहीं
दिल लिया है तो ख़ुदा के लिए कह दो साहब
दश्त-ओ-सहरा में हसीं फिरते हैं घबराए हुए
किसी की जुब्बा-साई से कभी घिसता नहीं पत्थर