यूँ आती हैं अब मेरे तनफ़्फ़ुस की सदाएँ
जिस तरह से देता है कोई नौहागर आवाज़
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किसी की जुब्बा-साई से कभी घिसता नहीं पत्थर
है नौ-जवानी में ज़ोफ़-ए-पीरी बदन में रअशा कमर में ख़म है
मोहतसिब तू ने किया गर जाम-ए-सहबा पाश पाश
फ़लक की गर्दिशें ऐसी नहीं जिन में क़दम ठहरे
फ़स्ल-ए-गुल आई उठा अब्र चली सर्द हुआ
लैस हो कर जो मिरा तर्क-ए-जफ़ा-कार चले
जो ले लेते हो यूँ हर एक का दिल बातों बातों में
हज़रत-ए-वाइज़ न ऐसा वक़्त हाथ आएगा फिर
कसी हैं भब्तियाँ मस्जिद में रीश-ए-वाइज़ पर
ग़ुर्बत बस अब तरीक़-ए-मोहब्बत को क़त्अ कर
जब शाम हुई दिल घबराया लोग उठ के बराए सैर चले
जब कि वहदत है बाइस-ए-कसरत