हज़रत-ए-वाइज़ न ऐसा वक़्त हाथ आएगा फिर
सब हैं बे-ख़ुद तुम भी पी लो कुछ अगर शीशे में है
Anwar Masood
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अक़्ल पर पत्थर पड़े उल्फ़त में दीवाना हुआ
जो ले लेते हो यूँ हर एक का दिल बातों बातों में
फ़िराक़ में दम उलझ रहा है ख़याल-ए-गेसू में जांकनी है
बना के आईना-ए-तसव्वुर जहाँ दिल-ए-दाग़-दार देखा
बुतान-ए-सर्व-क़ामत की मोहब्बत में न फल पाया
मोहतसिब तू ने किया गर जाम-ए-सहबा पाश पाश
किसी की जुब्बा-साई से कभी घिसता नहीं पत्थर
ये साबित है कि मुतलक़ का तअय्युन हो नहीं सकता
वो उट्ठे हैं तेवर बदलते हुए
रिंदों को वाज़ पंद न कर फ़स्ल-ए-गुल में शैख़
तेरा कूचा है वो ऐ बुत कि हज़ारों ज़ाहिद
वो यूँ शक्ल-ए-तर्ज़-ए-बयाँ खींचते हैं