तेरा कूचा है वो ऐ बुत कि हज़ारों ज़ाहिद
डाल के सुब्हा में याँ रिश्ता-ए-ज़ुन्नार चले
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सब में हूँ फिर किसी से सरोकार भी नहीं
लब-ए-जाँ-बख़्श तक जा कर रहे महरूम बोसा से
जबीन पर क्यूँ शिकन है ऐ जान मुँह है ग़ुस्से से लाल कैसा
शब कि मुतरिब था शराब-ए-नाब थी पैमाना था
उस से क्या छुप सके बनाई बात
बहुत दिनों में वो आए हैं वस्ल की शब है
ये साबित है कि मुतलक़ का तअय्युन हो नहीं सकता
देख लो तुम ख़ू-ए-आतिश ऐ क़मर शीशे में है
वो उट्ठे हैं तेवर बदलते हुए
लिख कर मुक़त्तआ'त में दीं उन को अर्ज़ियाँ
बढ़ा दी इक नज़र में तू ने क्या तौक़ीर पत्थर की
कसी हैं भब्तियाँ मस्जिद में रीश-ए-वाइज़ पर