जा सके न मस्जिद तक जम्अ' थे बहुत ज़ाहिद
मय-कदे में आ बैठे जब न रास्ता पाया
Javed Akhtar
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शब-ए-फ़ुर्क़त है ठहरते नहीं शोले दिल में
फ़रियाद भी मैं कर न सका बे-ख़बरी से
थोड़ी थोड़ी राह में पी लेंगे गर कम है तो क्या
भला हो जिस काम में किसी का तो उस में वक़्फ़ा न कीजिएगा
शराब पी जान तन में आई अलम से था दिल कबाब कैसा
किसी सूरत से हुई कम न हमारी तशवीश
है आठ पहर तू जल्वा-नुमा तिमसाल-ए-नज़र है परतव-ए-रुख़
बरहमन शैख़ को कर दे निगाह-ए-नाज़ उस बुत की
चल नहीं सकते वहाँ ज़ेहन-ए-रसा के जोड़-तोड़
सब में हूँ फिर किसी से सरोकार भी नहीं
तीरा-बख़्ती की बला से यूँ निकलना चाहिए
है निगहबाँ रुख़ का ख़ाल-रू-ए-दोस्त