जब कि वहदत है बाइस-ए-कसरत
एक है सब का रास्ता वाइज़
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दाग़-ए-दिल हैं ग़ैरत-ए-सद-लाला-ज़ार अब के बरस
किसी सूरत से हुई कम न हमारी तशवीश
फ़स्ल-ए-गुल आई उठा अब्र चली सर्द हुआ
चल नहीं सकते वहाँ ज़ेहन-ए-रसा के जोड़-तोड़
क्या हुआ वीराँ किया गर मोहतसिब ने मय-कदा
कसी हैं भब्तियाँ मस्जिद में रीश-ए-वाइज़ पर
लिख कर मुक़त्तआ'त में दीं उन को अर्ज़ियाँ
गुलों का दौर है बुलबुल मज़े बहार में लूट
है आठ पहर तू जल्वा-नुमा तिमसाल-ए-नज़र है परतव-ए-रुख़
जा सके न मस्जिद तक जम्अ' थे बहुत ज़ाहिद
फ़लक की गर्दिशें ऐसी नहीं जिन में क़दम ठहरे
है नौ-जवानी में ज़ोफ़-ए-पीरी बदन में रअशा कमर में ख़म है