शम्अ का शाना-ए-इक़बाल है तौफ़ीक़-ए-करम
ग़ुंचा गुल होते ही ख़ुद साहब-ए-ज़र होता है
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ग़ुर्बत बस अब तरीक़-ए-मोहब्बत को क़त्अ कर
नासेह ये वा'ज़-ओ-पंद है बेकार जाएगा
अक़्ल पर पत्थर पड़े उल्फ़त में दीवाना हुआ
फ़रियाद भी मैं कर न सका बे-ख़बरी से
ख़ुदा करे कहीं मय-ख़ाने की तरफ़ न मुड़े
पिला साक़ी मय-ए-गुल-रंग फिर काली घटा आई
फ़लक की गर्दिशें ऐसी नहीं जिन में क़दम ठहरे
हुए ख़ल्क़ जब से जहाँ में हम हवस-ए-नज़ारा-ए-यार है
भला हो जिस काम में किसी का तो उस में वक़्फ़ा न कीजिएगा
चाँदनी छुपती है तकयों के तले आँखों में ख़्वाब
गुलों का दौर है बुलबुल मज़े बहार में लूट
बहुत दिनों में वो आए हैं वस्ल की शब है