ज़ुल्फ़ Poetry (page 23)

आज यूँ मौज-दर-मौज ग़म थम गया इस तरह ग़म-ज़दों को क़रार आ गया

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

सजन मुझ पर बहुत ना-मेहरबाँ है

फ़ाएज़ देहलवी

ऐ जान शब-ए-हिज्राँ तिरी सख़्त बड़ी है

फ़ाएज़ देहलवी

रुस्वा भी हुए जाम पटकना भी न आया

एज़ाज़ अफ़ज़ल

ज़ालिम से मुस्तफ़ा का अमल चाहते हैं लोग

एजाज़ रहमानी

चाहा था मफ़र दिल ने मगर ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर

एजाज़ गुल

दर खोल के देखूँ ज़रा इदराक से बाहर

एजाज़ गुल

अक़्ल पहुँची जो रिवायात के काशाने तक

एहतिशाम हुसैन

बात अब आई समझ में कि हक़ीक़त क्या थी

एहसान दरबंगावी

कल रात कुछ अजीब समाँ ग़म-कदे में था

एहसान दानिश

दोस्तो तुम ने भी देखी है वो सूरत वो शबीह

दिलकश सागरी

कराची की बस

दिलावर फ़िगार

ज़हर बीमार को मुर्दे को दवा दी जाए

दिलावर फ़िगार

सियाह ज़ुल्फ़ को जो बन-सँवर के देखते हैं

दिलावर फ़िगार

शब की तारीकी बढ़ती ही जाए

दीद राही

रक़म करने कूँ वस्फ़-ए-ज़ुल्फ़-ए-दिलदार

दाऊद औरंगाबादी

देखना है पिया की ज़ुल्फ़-ए-दराज़

दाऊद औरंगाबादी

तेरी अँखियाँ के तसव्वुर में सदा मस्ताना हूँ

दाऊद औरंगाबादी

मिरा अहवाल चश्म-ए-यार सूँ पूछ

दाऊद औरंगाबादी

ख़िर्क़ा-पोशी में ख़ुद-नुमाई है

दाऊद औरंगाबादी

दिल कूँ दिलदार के नियाज़ करे

दाऊद औरंगाबादी

देख लटका सजन तेरी लट का

दाऊद औरंगाबादी

अगर वो गुल-बदन मुझ पास हो जावे तो क्या होवे

दाऊद औरंगाबादी

सैर-ए-बहार-ए-बाग़ से हम को मुआ'फ़ कीजिए

ख़्वाजा मीर 'दर्द'

चमन में सुब्ह ये कहती थी हो कर चश्म-ए-तर शबनम

ख़्वाजा मीर 'दर्द'

निगह निकली न दिल की चोर ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं निकली

दाग़ देहलवी

उस से क्या ख़ाक हम-नशीं बनती

दाग़ देहलवी

शब-ए-वस्ल भी लब पे आए गए हैं

दाग़ देहलवी

ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा

दाग़ देहलवी

हुआ जब सामना उस ख़ूब-रू से

दाग़ देहलवी

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