चाहा था मफ़र दिल ने मगर ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर
पेचाक बनाती रही पेचाक से बाहर
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इतना तिलिस्म याद के चक़माक़ में रहा
निशान-ए-ज़िंदगी
मैं उम्र को तो मुझे उम्र खींचती है उलट
मंज़र-ए-वक़्त की यकसानी में बैठा हुआ हूँ
ख़ाशाक से ख़िज़ाँ में रहा नाम बाग़ का
महमिल है मतलूब न लैला माँगता है
क़िस्मत की ख़राबी है कि जाता हूँ ग़लत सम्त
कुछ देर ठहर और ज़रा देख तमाशा
चल रहा हूँ पेश-ओ-पस-मंज़र से उकताया हुआ
क़ाफ़िला उतरा सहरा में और पेश वही मंज़र आए
सूरत-ए-सहर जाऊँ और दर-ब-दर जाऊँ
धूप जवानी का याराना अपनी जगह