दर खोल के देखूँ ज़रा इदराक से बाहर
ये शोर सा कैसा है मिरी ख़ाक से बाहर
Habib Jalib
Mir Taqi Mir
Wasi Shah
Jaun Eliya
Allama Iqbal
Anwar Masood
Ahmad Faraz
Rahat Indori
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Faiz Ahmad Faiz
Javed Akhtar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(720) Peoples Rate This
दिनों महीनों आँखें रोईं नई रुतों की ख़्वाहिश में
फैला अजब ग़ुबार है आईना-गाह में
कभी क़तार से बाहर कभी क़तार के बीच
उसी जन्नत जहन्नम में मरूँगा
ज़रा बतला ज़माँ क्या है मकाँ के उस तरफ़ क्या है
ये घूमता हुआ आईना अपना ठहरा के
दुश्वार है अब रास्ता आसान से आगे
रह रहे हैं मकीं शबों के
जो क़िस्सा-गो ने सुनाया वही सुना गया है
अजीब शख़्स था मैं भी भुला नहीं पाया
दुश्मनों के दरमियान सुल्ह
हुआ के खेल में शिरकत के वास्ते मुझ को