कभी क़तार से बाहर कभी क़तार के बीच
मैं हिज्र-ज़ाद हुआ ख़र्च इंतिज़ार के बीच
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ढूँढता हूँ रोज़-ओ-शब कौन से जहाँ में है
दर खोल के देखूँ ज़रा इदराक से बाहर
क़ाफ़िला उतरा सहरा में और पेश वही मंज़र आए
हो नहीं पाया है समझौता कभी दोनों के बीच
अतवार उस के देख के आता नहीं यक़ीं
इतना तिलिस्म याद के चक़माक़ में रहा
सुस्त-रौ मुसाफ़िर की क़िस्मतों पे क्या रोना
पेश-तर जुम्बिश-ए-लब बात से पहले क्या था
महमिल है मतलूब न लैला माँगता है
सूरत-ए-सहर जाऊँ और दर-ब-दर जाऊँ
नतीजा एक सा निकला दिमाग़ और दिल का