जो क़िस्सा-गो ने सुनाया वही सुना गया है
अगर था इस से सिवा तो नहीं कहा गया है
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अक्स उभरा न था आईना-ए-दिल-दारी का
निशान-ए-ज़िंदगी
पेचाक-ए-उम्र अपने सँवार आइने के साथ
चाहा था मफ़र दिल ने मगर ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर
दर खोल के देखूँ ज़रा इदराक से बाहर
पाया न कुछ ख़ला के सिवा अक्स-ए-हैरती
मश्क़-ए-सुख़न में दिल भी हमेशा से है शरीक
अतवार उस के देख के आता नहीं यक़ीं
बुझी नहीं मिरे आतिश-कदे की आग अभी
दुश्वार है अब रास्ता आसान से आगे
चल रहा हूँ पेश-ओ-पस-मंज़र से उकताया हुआ
उसी जन्नत जहन्नम में मरूँगा