बुझी नहीं मिरे आतिश-कदे की आग अभी
उठा नहीं है बदन से धुआँ कहाँ गया मैं
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निशान-ए-ज़िंदगी
पाया न कुछ ख़ला के सिवा अक्स-ए-हैरती
जो क़िस्सा-गो ने सुनाया वही सुना गया है
अतवार उस के देख के आता नहीं यक़ीं
महमिल है मतलूब न लैला माँगता है
नहीं खुलता कि आख़िर ये तिलिस्माती तमाशा सा
गलियों में भटकना रह-ए-आलाम में रहना
दुश्मनों के दरमियान सुल्ह
ढूँढता हूँ रोज़-ओ-शब कौन से जहाँ में है
उसी जन्नत जहन्नम में मरूँगा
पेश-तर जुम्बिश-ए-लब बात से पहले क्या था
यहीं था बैठा हुआ दरमियाँ कहाँ गया मैं