पाया न कुछ ख़ला के सिवा अक्स-ए-हैरती
गुज़रा था आर-पार हज़ार आइने के साथ
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हैरत है सब तलाश पे उस की रहे मुसिर
सूरत-ए-सहर जाऊँ और दर-ब-दर जाऊँ
उसी जन्नत जहन्नम में मरूँगा
कोई सबब तो है ऐसा कि एक उम्र से हैं
उठा रखी है किसी ने कमान सूरज की
गलियों में भटकना रह-ए-आलाम में रहना
हो नहीं पाया है समझौता कभी दोनों के बीच
निशान-ए-ज़िंदगी
बे-सबब जम'अ तो करता नहीं तीर ओ तरकश
हुआ के खेल में शिरकत के वास्ते मुझ को
नतीजा एक सा निकला दिमाग़ और दिल का
किसे ख़याल था ऐसी भी साअ'तें होंगी