कोई सबब तो है ऐसा कि एक उम्र से हैं
ज़माना मुझ से ख़फ़ा और मैं ज़माने से
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नहीं खुलता कि आख़िर ये तिलिस्माती तमाशा सा
कुछ देर ठहर और ज़रा देख तमाशा
चाहा था मफ़र दिल ने मगर ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर
किसे ख़याल था ऐसी भी साअ'तें होंगी
जो क़िस्सा-गो ने सुनाया वही सुना गया है
हुआ के खेल में शिरकत के वास्ते मुझ को
ज़रा बतला ज़माँ क्या है मकाँ के उस तरफ़ क्या है
पेश-तर जुम्बिश-ए-लब बात से पहले क्या था
गलियों में भटकना रह-ए-आलाम में रहना
ढूँढता हूँ रोज़-ओ-शब कौन से जहाँ में है
फैला अजब ग़ुबार है आईना-गाह में
ये घूमता हुआ आईना अपना ठहरा के