क़िस्मत की ख़राबी है कि जाता हूँ ग़लत सम्त
पड़ता है बयाबान बयाबान से आगे
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यहीं था बैठा हुआ दरमियाँ कहाँ गया मैं
दुश्वार है अब रास्ता आसान से आगे
इतना तिलिस्म याद के चक़माक़ में रहा
दर खोल के देखूँ ज़रा इदराक से बाहर
गलियों में भटकना रह-ए-आलाम में रहना
पेचाक-ए-उम्र अपने सँवार आइने के साथ
सूरत-ए-सहर जाऊँ और दर-ब-दर जाऊँ
दिनों महीनों आँखें रोईं नई रुतों की ख़्वाहिश में
ये घूमता हुआ आईना अपना ठहरा के
जो क़िस्सा-गो ने सुनाया वही सुना गया है
पेश-तर जुम्बिश-ए-लब बात से पहले क्या था
नतीजा एक सा निकला दिमाग़ और दिल का