नतीजा एक सा निकला दिमाग़ और दिल का
कि दोनों हार गए इम्तिहाँ में दुनिया के
Rahat Indori
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चल रहा हूँ पेश-ओ-पस-मंज़र से उकताया हुआ
गलियों में भटकना रह-ए-आलाम में रहना
पेचाक-ए-उम्र अपने सँवार आइने के साथ
गली से अपनी उठाता है वो बहाने से
अतवार उस के देख के आता नहीं यक़ीं
ज़रा बतला ज़माँ क्या है मकाँ के उस तरफ़ क्या है
पेश-तर जुम्बिश-ए-लब बात से पहले क्या था
ढूँढता हूँ रोज़-ओ-शब कौन से जहाँ में है
अजीब शख़्स था मैं भी भुला नहीं पाया
मंज़र-ए-वक़्त की यकसानी में बैठा हुआ हूँ
ये घूमता हुआ आईना अपना ठहरा के
सूरत-ए-सहर जाऊँ और दर-ब-दर जाऊँ