उठा रखी है किसी ने कमान सूरज की
गिरा रहा है मिरे रात दिन निशाने से
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नहीं खुलता कि आख़िर ये तिलिस्माती तमाशा सा
हो नहीं पाया है समझौता कभी दोनों के बीच
क़िस्मत की ख़राबी है कि जाता हूँ ग़लत सम्त
ढूँढता हूँ रोज़-ओ-शब कौन से जहाँ में है
कोई सबब तो है ऐसा कि एक उम्र से हैं
मंज़र-ए-वक़्त की यकसानी में बैठा हुआ हूँ
उसी जन्नत जहन्नम में मरूँगा
सूरत-ए-सहर जाऊँ और दर-ब-दर जाऊँ
बे-सबब जम'अ तो करता नहीं तीर ओ तरकश
जो क़िस्सा-गो ने सुनाया वही सुना गया है
हैरत है सब तलाश पे उस की रहे मुसिर