मश्क़-ए-सुख़न में दिल भी हमेशा से है शरीक
लेकिन है इस में काम ज़ियादा दिमाग़ का
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किसे ख़याल था ऐसी भी साअ'तें होंगी
महमिल है मतलूब न लैला माँगता है
कुछ देर ठहर और ज़रा देख तमाशा
धूप जवानी का याराना अपनी जगह
ये घूमता हुआ आईना अपना ठहरा के
अतवार उस के देख के आता नहीं यक़ीं
पाया न कुछ ख़ला के सिवा अक्स-ए-हैरती
थम गई वक़्त की रफ़्तार तिरे कूचे में
फैला अजब ग़ुबार है आईना-गाह में
बुझी नहीं मिरे आतिश-कदे की आग अभी
हो नहीं पाया है समझौता कभी दोनों के बीच
सुस्त-रौ मुसाफ़िर की क़िस्मतों पे क्या रोना