धूप जवानी का याराना अपनी जगह
थक जाता है जिस्म तो साया माँगता है
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नहीं खुलता कि आख़िर ये तिलिस्माती तमाशा सा
हो नहीं पाया है समझौता कभी दोनों के बीच
चाहा था मफ़र दिल ने मगर ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर
रह रहे हैं मकीं शबों के
क़िस्मत की ख़राबी है कि जाता हूँ ग़लत सम्त
हुआ के खेल में शिरकत के वास्ते मुझ को
पाया न कुछ ख़ला के सिवा अक्स-ए-हैरती
दिनों महीनों आँखें रोईं नई रुतों की ख़्वाहिश में
नतीजा एक सा निकला दिमाग़ और दिल का
फैला अजब ग़ुबार है आईना-गाह में
ख़ाशाक से ख़िज़ाँ में रहा नाम बाग़ का