बिछड़ Poetry (page 3)

वही आँखों में और आँखों से पोशीदा भी रहता है

साक़ी फ़ारुक़ी

रेत की सूरत जाँ प्यासी थी आँख हमारी नम न हुई

साक़ी फ़ारुक़ी

रात अपने ख़्वाब की क़ीमत का अंदाज़ा हुआ

साक़ी फ़ारुक़ी

मुझ को मिरी शिकस्त की दोहरी सज़ा मिली

साक़ी फ़ारुक़ी

इक याद की मौजूदगी सह भी नहीं सकते

साक़ी फ़ारुक़ी

मैं तुझ से लाख बिछड़ कर यहाँ वहाँ जाता

सलमान अख़्तर

शहरयारों ने दिखाईं मुझ को तस्वीरें बहुत

सलीम शहज़ाद

क्या मेरा इख़्तियार ज़मान-ओ-मकान पर

सलीम शाहिद

ग़म मुसलसल हो तो अहबाब बिछड़ जाते हैं

सलाम मछली शहरी

अब अयादत को मिरी कोई नहीं आएगा

सलाम मछली शहरी

जो महव-ए-हालात नहीं है

साजिद सिद्दीक़ी लखनवी

रूह को पहले ख़ाकसार किया

साजिद हमीद

हसीन रातों जमील तारों की याद सी रह गई है बाक़ी

सैफ़ुद्दीन सैफ़

तैरेगा फ़ज़ा में जो समुंदर न मिलेगा

साहिर होशियारपुरी

मन के मंदिर में है उदासी क्यूँ

सहर अंसारी

तुम से मिलने का बहाना तक नहीं

सईद क़ैस

शाम के आसार गीले हैं बहुत

सईद क़ैस

उदास उदास सर-ए-साग़र-ओ-सुबू भी मैं

सादिक़ नसीम

उस से बिछड़ के एक उसी का हाल नहीं मैं जान सका

साबिर ज़फ़र

हर शख़्स बिछड़ चुका है मुझ से

साबिर ज़फ़र

ये सोच के राख हो गया हूँ

साबिर ज़फ़र

रात को ख़्वाब हो गई दिन को ख़याल हो गई

साबिर ज़फ़र

जो ख़्वाब मेरे नहीं थे मैं उन को देखता था

साबिर वसीम

आज की रात

साबिर दत्त

इस शोला-ख़ू की तरह बिगड़ता नहीं कोई

रूही कंजाही

हसीं चेहरों से सूरत-आश्नाई होती रहती है

रूही कंजाही

ले उड़े गेसू परेशानी मिरी

रियाज़ ख़ैराबादी

जब से आया हूँ तेरे गाँव में

रिफ़अत सुलतान

ज़िंदगी तुझ से बिछड़ कर मैं जिया एक बरस

रिफ़अत सरोश

सफ़र कठिन ही सही क्या अजब था साथ उस का

राज़ी अख्तर शौक़

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