बिछड़ Poetry (page 1)

सुब्ह बिछड़ कर शाम का व'अदा शाम का होना सहल नहीं

सियाह पट्टी

ज़ुबैर रिज़वी

हम बिछड़ के तुम से बादल की तरह रोते रहे

ज़ुबैर रिज़वी

हम बिछड़ के तुम से बादल की तरह रोते रहे

ज़ुबैर रिज़वी

शाम का पहला तारा (2)

ज़ेहरा निगाह

इस दश्त-ए-बे-पनाह की हद पर भी ख़ुश नहीं

ज़ीशान साहिल

मुझ से बिछड़ कर होगा समुंदर भी बेचैन

ज़ेब ग़ौरी

गहरी रात है और तूफ़ान का शोर बहुत

ज़ेब ग़ौरी

ख़ामोशी ख़ुद अपनी सदा हो ये भी तो हो सकता है

ज़का सिद्दीक़ी

मुझ से बिछड़ कर पहरों रोया करता था

ज़हीर काश्मीरी

हिज्र ओ विसाल की सर्दी गर्मी सहता है

ज़हीर काश्मीरी

रात भर सूरज के बन कर हम-सफ़र वापस हुए

ज़फ़र मुरादाबादी

ये दश्त-ए-शौक़ का लम्बा सफ़र अच्छा नहीं लगता

ज़फ़र अंसारी ज़फ़र

ग़म इतने अपने दामन-ए-दिल से लिपट गए

ज़फ़र अंसारी ज़फ़र

जबीं-ए-संग पे लिक्खा मिरा फ़साना गया

वज़ीर आग़ा

ब-तस्ख़ीर-बुताँ तस्बीह क्यूँ ज़ाहिद फिराते हैं

वलीउल्लाह मुहिब

तुझ से बिछड़ के यूँ तो बहुत जी उदास है

वाली आसी

क्या हिज्र में जी निढाल करना

वाली आसी

बचा के आँख बिछड़ जाएँ उस से चुपके से

विपुल कुमार

जिन से मिलना न हुआ उन से बिछड़ कर रोए

त्रिपुरारि

तेरी वफ़ा का हम को गुमाँ इस क़दर हुआ

तासीर सिद्दीक़ी

यूँ भी तो तिरी राह की दीवार नहीं हैं

तालीफ़ हैदर

सजा लिया है हथेली पे हम ने उस का नाम

ताहिरा जबीन तारा

मिल के लगा है आज ज़माने ठहर गए

ताहिरा जबीन तारा

ये आँख नम थी ज़बाँ पर मगर सवाल न था

ताहिरा जबीन तारा

काग़ज़ पे तेरा नक़्श उतारा नहीं गया

ताहिरा जबीन तारा

आग़ाज़-ए-गुल है शौक़ मगर तेज़ अभी से है

ताबिश देहलवी

कैफ़ियत ही कैफ़ियत में हम कहाँ तक आ गए

सय्यद मुबीन अल्वी ख़ैराबादी

तुझ को ही सोचता रहूँ फ़ुर्सत नहीं रही

सय्यद अनवार अहमद

न कोई नीलम न कोई हीरा न मोतियों की बहार देखी

सूरज नारायण

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