मुझ से बिछड़ कर पहरों रोया करता था
वो जो मेरे हाल पे हँसता रहता है
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बढ़ गए हैं इस क़दर क़ल्ब ओ नज़र के फ़ासले
इक शख़्स रात बंद-ए-क़बा खोलता रहा
हम ने अपने इश्क़ की ख़ातिर ज़ंजीरें भी देखीं हैं
आह ये महकी हुई शामें ये लोगों के हुजूम
बर्क़-ए-ज़माना दूर थी लेकिन मिशअल-ए-ख़ाना दूर न थी
हमारे इश्क़ से दर्द-ए-जहाँ इबारत है
सीरत न हो तो आरिज़-ओ-रुख़्सार सब ग़लत
मौसम बदला रुत गदराई अहल-ए-जुनूँ बेबाक हुए
होती न हम को साया-ए-दीवार की तलाश
इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें
वो अक्सर बातों बातों में अग़्यार से पूछा करते हैं
फ़र्ज़ बरसों की इबादत का अदा हो जैसे