सीरत न हो तो आरिज़-ओ-रुख़्सार सब ग़लत
ख़ुशबू उड़ी तो फूल फ़क़त रंग रह गया
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आरिज़-ए-शम्अ' पे नींद आ गई परवानों को
तू मिरी ज़ात मिरी रूह मिरा हुस्न-ए-कलाम
कितना दिलकश है तिरी याद का पाला हुआ अश्क
मैं ने उस को अपना मसीहा मान लिया
बढ़ गए हैं इस क़दर क़ल्ब ओ नज़र के फ़ासले
तू अगर ग़ैर है नज़दीक-ए-रग-ए-जाँ क्यूँ है
इश्क़ जब तक न आस-पास रहा
वो बज़्म से निकाल के कहते हैं ऐ 'ज़हीर'
मैं हूँ वहशत में गुम मैं तेरी दुनिया में नहीं रहता
हैं बज़्म-ए-गुल में बपा नौहा-ख़्वानियाँ क्या क्या
जब ख़ामुशी ही बज़्म का दस्तूर हो गई
तलब आसूदगी की अर्सा-ए-दुनिया में रखते हैं