मैं ने उस को अपना मसीहा मान लिया
सारा ज़माना जिस को क़ातिल कहता है
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इश्क़ जब तक न आस-पास रहा
तू अगर ग़ैर है नज़दीक-ए-रग-ए-जाँ क्यूँ है
मरना अज़ाब था कभी जीना अज़ाब था
सूने पड़े हैं दिल के दर-ओ-बाम ऐ 'ज़हीर'
इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें
परवाना जल के साहब-ए-किरदार बन गया
कुल काएनात फ़िक्र से आज़ाद हो गई
तिरी चश्म-ए-तरब को देखना पड़ता है पुर-नम भी
अब मिरी याद को दामन की हवाएँ देना
सीरत न हो तो आरिज़-ओ-रुख़्सार सब ग़लत
हमें ख़बर है कि हम हैं चराग़-ए-आख़िर-ए-शब
बढ़ गए हैं इस क़दर क़ल्ब ओ नज़र के फ़ासले