कुल काएनात फ़िक्र से आज़ाद हो गई
इंसाँ मिसाल-ए-दस्त-ए-तह-ए-संग रह गया
Ahmad Faraz
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अब है क्या लाख बदल चश्म-ए-गुरेज़ाँ की तरह
दिल मर चुका है अब न मसीहा बना करो
तलब आसूदगी की अर्सा-ए-दुनिया में रखते हैं
वो बज़्म से निकाल के कहते हैं ऐ 'ज़हीर'
आँधियाँ उट्ठीं फ़ज़ाएँ दूर तक कजला गईं
तमाम उम्र तिरी हम-रही का शौक़ रहा
मैं हूँ वहशत में गुम मैं तेरी दुनिया में नहीं रहता
वो महफ़िलें वो मिस्र के बाज़ार क्या हुए
इश्क़ इक हिकायत है सरफ़रोश दुनिया की
सूने पड़े हैं दिल के दर-ओ-बाम ऐ 'ज़हीर'
हम ने अपने इश्क़ की ख़ातिर ज़ंजीरें भी देखीं हैं
इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें