हम ने अपने इश्क़ की ख़ातिर ज़ंजीरें भी देखीं हैं
हम ने उन के हुस्न की ख़ातिर रक़्स भी ज़ेर-ए-दार किया
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तू मिरी ज़ात मिरी रूह मिरा हुस्न-ए-कलाम
हमराह लुत्फ़-ए-चश्म-ए-गुरेज़ाँ भी आएगी
लौह-ए-मज़ार देख के जी दंग रह गया
मौसम बदला रुत गदराई अहल-ए-जुनूँ बेबाक हुए
आँधियाँ उट्ठीं फ़ज़ाएँ दूर तक कजला गईं
इक शख़्स रात बंद-ए-क़बा खोलता रहा
इश्क़ जब तक न आस-पास रहा
इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें
मैं हूँ वहशत में गुम मैं तेरी दुनिया में नहीं रहता
वो अक्सर बातों बातों में अग़्यार से पूछा करते हैं
हिज्र के दौर में हर दौर को शामिल कर लें
शब-ए-ग़म याद उन की आ रही है