इश्क़ जब तक न आस-पास रहा
हुस्न तन्हा रहा उदास रहा
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मैं हूँ वहशत में गुम मैं तेरी दुनिया में नहीं रहता
अब इश्क़ से लौ लगाएँगे हम
वो अक्सर बातों बातों में अग़्यार से पूछा करते हैं
हम ने अपने इश्क़ की ख़ातिर ज़ंजीरें भी देखीं हैं
इक शख़्स रात बंद-ए-क़बा खोलता रहा
मुज़्महिल होने पे भी ख़ुद को जवाँ रखते हैं हम
तन्हाइयों में आती रही जब भी उस की याद
मौसम बदला रुत गदराई अहल-ए-जुनूँ बेबाक हुए
तिरी चश्म-ए-तरब को देखना पड़ता है पुर-नम भी
लौह-ए-मज़ार देख के जी दंग रह गया
तू अगर ग़ैर है नज़दीक-ए-रग-ए-जाँ क्यूँ है
तमाम उम्र तिरी हम-रही का शौक़ रहा