इश्क़ इक हिकायत है सरफ़रोश दुनिया की
हिज्र इक मसाफ़त है बे-निगार सहरा की
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बड़े दिल-कश हैं दुनिया के ख़म ओ पेच
तिरी चश्म-ए-तरब को देखना पड़ता है पुर-नम भी
लौह-ए-मज़ार देख के जी दंग रह गया
हवा-ए-हिज्र चली दिल की रेगज़ारों में
वो बज़्म से निकाल के कहते हैं ऐ 'ज़हीर'
बढ़ गए हैं इस क़दर क़ल्ब ओ नज़र के फ़ासले
किस को मिली तस्कीन-ए-साहिल किस ने सर मंजधार किया
इश्क़ जब तक न आस-पास रहा
फ़र्ज़ बरसों की इबादत का अदा हो जैसे
मैं ने उस को अपना मसीहा मान लिया