इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें
पत्ता समझ के ले उड़ी वहशी हवा हमें
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कितना दिलकश है तिरी याद का पाला हुआ अश्क
किस को मिली तस्कीन-ए-साहिल किस ने सर मंजधार किया
तिरी चश्म-ए-तरब को देखना पड़ता है पुर-नम भी
फ़िराक़-ए-यार के लम्हे गुज़र ही जाएँगे
फ़र्ज़ बरसों की इबादत का अदा हो जैसे
अहल-ए-दिल मिलते नहीं अहल-ए-नज़र मिलते नहीं
हम ने अपने इश्क़ की ख़ातिर ज़ंजीरें भी देखीं हैं
इश्क़ जब तक न आस-पास रहा
लौह-ए-मज़ार देख के जी दंग रह गया
अब है क्या लाख बदल चश्म-ए-गुरेज़ाँ की तरह
इक शख़्स रात बंद-ए-क़बा खोलता रहा
मुझ से बिछड़ कर पहरों रोया करता था