हिज्र के दौर में हर दौर को शामिल कर लें
इस में शामिल यही इक उम्र-ए-गुरेज़ाँ क्यूँ है
Mohsin Naqvi
Gulzar
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
Anwar Masood
Wasi Shah
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
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अब इश्क़ से लौ लगाएँगे हम
तमाम उम्र तिरी हम-रही का शौक़ रहा
मिरा ही बन के वो बुत मुझ से आश्ना न हुआ
फ़र्ज़ बरसों की इबादत का अदा हो जैसे
इश्क़ इक हिकायत है सरफ़रोश दुनिया की
कोई दस्तक कोई आहट न शनासा आवाज़
अब है क्या लाख बदल चश्म-ए-गुरेज़ाँ की तरह
सूने पड़े हैं दिल के दर-ओ-बाम ऐ 'ज़हीर'
होती न हम को साया-ए-दीवार की तलाश
सीरत न हो तो आरिज़-ओ-रुख़्सार सब ग़लत
मैं ने उस को अपना मसीहा मान लिया